देहरादून : पिछले 10 वर्षों में उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाओं में 40% वृद्धि हुई है। टिहरी डैम, मानसून सीजन का सिमटना और वनों की कमी इसका प्रमुख कारण है। अब 'मल्टी क्लाउड बर्स्ट' (एक साथ कई बादल फटना) की नई चुनौती पैदा हो। 2013 की केदारनाथ त्रासदी से सबक लेने की जरूरत है, आइये जानते हैं लगातार आने होने वाले बादल फटने की घटना के कारणों के बारे में विस्तार से
तीन प्रमुख कारणों का विश्लेषण :
1. टिहरी डैम का प्रभाव :
आपकी जानकारी को बता दें कि 52 वर्ग किमी जल क्षेत्र से बादल निर्माण प्रक्रिया बढ़ गयी है। इसके साथ ही भागीरथी नदी का जलग्रहण क्षेत्र अप्राकृतिक रूप से बढ़ा है। वाडिया इंस्टीट्यूट के डॉ. सुशील कुमार ने बताया कि "जलाशयों ने वायुमंडलीय संतुलन की प्रक्रिया बदल दी है।"
2. मानसून सीजन का सिमटना :
गौरतलब है मॉनसून सीजन जो पहले 4 महीने का होता था वो जलवायु परिवर्तन से सिमटकर लगभग 2 महीने का हो गया है। अब अधिक बारिश होती भी है तो तीव्र गति से हो जा रही जिससे बाढ़, लैंड स्लाइड जैसी समस्या आ रही।
3. वनों का असमान वितरण :
विदित है कि 70% वन केवल पहाड़ी क्षेत्रों में है। मैदानी इलाकों में वनों की कमी से मानसूनी बादल पहाड़ों पर ज्यादा फटते हैं।
अब तक की ऐतिहासिक त्रासदियां :
1952 : सतपुली कस्बा पूरी तरह नष्ट
2013 : केदारनाथ आपदा (20,000+ मौतें)
2024 : चमोली में बादल फटने से 150 लोग प्रभावित
विशेषज्ञों की सिफारिशें :
1. मैदानी क्षेत्रों में तीव्र वनीकरण किया जाए। जिससे जल पैटर्न में सुधार हो, साथ ही मिट्टी के कटाव को भी रोका जा सके।
2. हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स का पुनर्मूल्यांकन किया जाय और उसको प्रकृति अनुरूप बनाया जाए।
3. अर्ली वार्निंग सिस्टम को और मजबूत किया जाए जिससे समय रहते लोगों को बादल फटने या लैंडस्लाइड के बारे में जानकारी दी जा सके।
सरकार द्वारा उठाये गए कदम :
आपको बता दें कि मौसम विज्ञान केंद्र द्वारा हाई-रिज़ॉल्यूशन मॉनिटरिंग की जा रही है। इसके साथ NDMA ने नई गाइडलाइन्स जारी की है। साथ ही पर्वतीय गांवों के लिए विशेष आपदा प्रबंधन योजना तैयार की गई है।
उत्तराखंड को जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप के दोहरे दबाव का सामना करना पड़ रहा है। स्थायी समाधान के लिए पारिस्थितिक संतुलन बहाल करना जरूरी है।