पटना : बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में NDA ने ज़बरदस्त वापसी की। कुल 202 सीटें जीतकर सरकार बनने का रास्ता साफ कर लिया। बीजेपी 89, JDU 85 और LJP(R) 19 सीटों के साथ जीत की तस्वीर बना रही है। महागठबंधन 110 से घिरकर सिर्फ 35 सीटों पर ठहर गया। नीतीश की सीधी-लाभ स्कीम्स (दस-हजारी, मुफ्त बिजली, बढ़ी पेंशन), चिराग-मांझी-कुशवाहा का जातीय जोड़, संगठित प्रचार और महागठबंधन की अंदरुनी खींचतान। इन सबने मिलकर NDA को यह जीत दिलवाई। जानें क्यों और कैसे हुआ यह बड़ा उलटफेर
1) ‘दस-हजारी स्कीम’ — महिलाओं का सीधे वोटिंग पे परफेक्ट असर
आपको बता दें कि नीतीश सरकार ने चुनाव से पहले लगभग 1.21 करोड़ महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपये डाले। इसके बाद चुनावी मुहावरा बन गया “दस-हजारी”। बिहार में महिला वोटर लगभग 3.51 करोड़ पर इसका सीधा असर पड़ा। नतीजतन महिलाओं में NDA को भारी समर्थन मिला औऱ वोटिंग रेट भी बढ़ी।
रोज़मर्रा के लाभ: बिजली, पेंशन, भत्ते ने वोटरों को जोड़ दिया
गौरतलब है कि NDA ने 125 यूनिट मुफ्त बिजली दी जिससे 1.67 करोड़ परिवार लाभान्वित हुए। सामाजिक पेंशन 400 से बढ़ाकर 1100 कर दिया गया जिससे 1.11 करोड़ लाभार्थी को लाभ मिला। ग्रैजुएट बेरोजगारों को 1000 रु./माह देने से लगभग 7.6 लाख युवा प्रभावित हुए। यह वोट बेस ग्रासरूट स्तर पर महागठबंधन के बड़े वादों से ज़्यादा प्रभावी सिद्ध हुआ।
3) चिराग-मांझी-कुशवाहा: जातीय इंजीनियरिंग ने खेल बदला
विदित है कि चिराग पासवान का NDA में शामिल होना JDU को फिर से मजबूत कर गया। पासवान/महादलित वोट बैंक ने 20-50 निर्णायक सीटों पर प्रभाव दिखाया। उपेंद्र कुशवाहा, मांझी जैसे नेताओं की उपस्थिति ने दलित-EBC वोट NDA के पाले में खींचे। यानी जातिगत समीकरण पक्के किए गए जिससे सीटें NDA के पक्ष में झुकीं।
4) विकास + हिंदुत्व का मिश्रण; एयरपोर्ट, पुल और मंदिर
विदित है कि ठोस उद्घाटन (पूर्णिया एयरपोर्ट, बेगूसराय 6-लेन ब्रिज) और जानकी मंदिर जैसे सांस्कृतिक-धार्मिक इवेंट ने विकास और भावनात्मक कार्ड दोनों खेल दिए। इससे विकास का संदेश + धार्मिक सेंटीमेंट से वोटिंग पर अधिक प्रभाव दिखा।
5) मोदी-शाह का प्रचार और स्टार प्रचारकों की फौज
गौरतलब है कि पीएम मोदी की 14 रैलियों और अमित शाह-मंत्रियों की सक्रियता ने जमीन पर गहराई से काम किया। भोजपुरी स्टार्स और स्थानीय नेताओं ने जनरैलियों को भी प्रभवित किया। बड़े चेहरों का लगातार प्रचार से निर्णायक वोटों तक पहुँचना मुमकिन हो पाया।
6) महागठबंधन की अंदरूनी कलह; सीट बंटवारे में उलझन
आपको बता दें कि RJD-Congress-सहयोगियों के बीच सीट-बंटवारे की लड़ाई और देर से CM-face को लेकर विवाद ने ग्राउंड इकाई को कमजोर कर दिया। नतीजतन कई जगह वोट बँटकर NDA को फायदा मिला। कुल 9 सीटें ऐसी जहाँ साथी-पार्टी एक दूसरे के खिलाफ उतरीं।
7) SIR और वोट चोरी का नैरेटिव काम नहीं आया
महागठबंधन ने SIR / वोट चोरी जैसे मुद्दे उठाए पर जनता पर असर कम पड़ा। विपक्ष के बड़े वादे (हर परिवार को नौकरी, 30 हजार महिलाओं को एकमुश्त, 200 यूनिट फ्री बिजली) को लोग यथार्थ में विश्वास नहीं कर पाए। बड़े वादे लेकिन भरोसे की कमी, वोटर ने व्यवहारिक पैकेज चुना।
8) प्रशांत किशोर और नई पार्टियों का असर सीमित
प्रशांत किशोर की जन-सुराज और नए चेहरे जमीन पर थोड़ा बहुत हलचल कर पाए पर बड़े नतीजे नहीं दे पाए। वोट बेस बिखरा और NDA की मोर्चेबंदी से मुकाबला न हो पाया।
9) डेटा-प्वाइंट्स जो तस्वीर साफ करते हैं
NDA ने 202 सीटें जीती जिसमें से बीजेपी 89 के साथ सबसे बड़ी पार्टी में तौर पर उभरी। JDU 85, और LJP(R) ने 19 सीटें जीती। महागठबंधन ने मात्र 35 सीटें जीती (पहले 110) इस दौरान महिला वोटिंग रेट 71.6% रहा। जिसमें महिला लक्षित योजनाओं का असर स्पष्ट रहा। ये आंकड़े बताते हैं कि रणनीति, लाभार्थी लक्षित नीतियाँ और जमीन पर संतुलित गठबंधन ने जीत तय की।
10) बना राजनीति का नया समीकरण
गौरतलब है कि बिहार ने दिखाया कि अब वोटर केवल वादों से नहीं, सीधे मिलने वाले फायदों और स्थानीय समीकरणों से प्रभावित होता है। NDA ने यह सिद्ध कर दिया कि “लाभार्थी + जातिगत गठजोड़ + केन्द्रिय प्रचार द्वारा बड़ी जीत दर्ज की जा सकती है।
बिहार में इस बार 'दस हजारी’ और ‘पासवान फैक्टर’ ने जादू किया है। महागठबंधन लड़ता रहा… NDA जीतता गया। और नतीजे ने साबित कर दिया कि जिसके पास लाभार्थी + जाति + संगठन है, वो बिहार को झटके में जीत सकता है। महागठबंधन के वादे महंगे और बड़े थे, पर वोटर ने जो सीधे जेब में आया और ज़मीन पर दिखा उसे चुना। राजनीति में अब ‘सीधा लाभ’ बहुत बड़ा हथियार बन चुका है।