भारत में आवारा कुत्तों का मुद्दा
भारत में आवारा कुत्तों का मुद्दा लंबे समय से विवाद और चिंता का विषय रहा है। देशभर में हर साल लाखों लोग डॉग-बाइट के शिकार होते हैं। केवल 2024 में ही करीब 37 लाख मामले सामने आए, जिनमें से दिल्ली में 25,000 थे। ऐसे हालात ने अदालत और समाज दोनों को सोचने पर मजबूर किया कि इंसानों की सुरक्षा और कुत्तों के अधिकारों के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश:
सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त 2025 को एक आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि आवारा कुत्तों को पकड़ने के बाद किसी भी हालत में सड़कों पर वापस न छोड़ा जाए और स्थायी रूप से शेल्टर में रखा जाए। अदालत ने तर्क दिया कि यह कदम बच्चों, महिलाओं और बुज़ुर्गों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है। हालांकि, यह आदेश एनिमल बर्थ कंट्रोल (ABC) Rules 2023 के खिलाफ था, जिनमें प्रावधान है कि नसबंदी और टीकाकरण के बाद कुत्तों को उसी इलाके में छोड़ा जाना चाहिए।
विरोध और विरोधाभास:
इस आदेश के बाद पशु-अधिकार कार्यकर्ताओं, डॉग लवर्स और कई एनजीओ ने जोरदार विरोध किया। उनका कहना था कि लाखों कुत्तों को स्थायी रूप से शेल्टर में रखना न तो व्यावहारिक है और न ही मानवीय। इसके अलावा, इतने बड़े पैमाने पर शेल्टर बनाने में भारी संसाधन और समय लगेगा। दूसरी ओर, RWA और नागरिकों ने कहा कि आवारा कुत्तों की संख्या बढ़ने और हमलों की घटनाओं से लोगों की जान-माल को खतरा है, इसलिए सख्त कदम जरूरी हैं।
22 अगस्त का सुधार: नया संतुलन:
लगातार विरोध और व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने 22 अगस्त को नया आदेश दिया। अदालत ने साफ किया कि जिन कुत्तों को पकड़ा जाएगा, उनकी नसबंदी, टीकाकरण और डी-वॉर्मिंग की जाएगी और उसके बाद उन्हें उसी इलाके में छोड़ा जाएगा। लेकिन रेबीज़ से संक्रमित या आक्रामक कुत्तों को सड़कों पर नहीं छोड़ा जाएगा, बल्कि शेल्टर में रखा जाएगा।
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्देश भी दिए—
हर वार्ड में निर्धारित फीडिंग पॉइंट बनाए जाएंगे, ताकि अव्यवस्थित ढंग से खाना खिलाने पर रोक लगे।
नगर निकाय और एनजीओ मिलकर गोद लेने (Adoption) को बढ़ावा देंगे।
नगर निगमों को पर्याप्त शेल्टर और निगरानी व्यवस्था विकसित करनी होगी।
आदेश का उल्लंघन करने पर अवमानना की कार्रवाई की चेतावनी दी गई।
पक्ष-विपक्ष की प्रतिक्रियाएँ:
नए आदेश का डॉग लवर्स और एनजीओ ने स्वागत किया। उनके अनुसार यह फैसला मानवीय दृष्टिकोण को भी मान्यता देता है और इंसानों की सुरक्षा को भी नज़रंदाज़ नहीं करता। सांसद मेनका गांधी ने इसे “वैज्ञानिक निर्णय” बताया और आक्रामक कुत्तों की परिभाषा स्पष्ट करने की मांग की। अभिनेता रणदीप हुड्डा ने कहा कि यह इंसानों और जानवरों के बीच सामंजस्य की जीत है। हालांकि, RWA और नागरिकों का कहना है कि फैसले के बाद भी उनकी सुरक्षा चिंताएं पूरी तरह दूर नहीं हुई हैं।
असली चुनौती: ज़मीनी क्रियान्वयन:
विशेषज्ञ मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश इंसानों और जानवरों के बीच संतुलन साधने का एक ऐतिहासिक प्रयास है। लेकिन असली चुनौती इसके क्रियान्वयन की है। बड़े पैमाने पर नसबंदी और टीकाकरण अभियान चलाना, पर्याप्त शेल्टर बनाना और फीडिंग पॉइंट्स पर निगरानी रखना नगर निगमों के लिए बड़ी जिम्मेदारी है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने नए आदेश से दोनों पक्षों की चिंताओं को संतुलित करने की कोशिश की है। अब यह प्रशासन, एनजीओ और नागरिकों पर निर्भर करता है कि वे मिलकर इस फैसले को धरातल पर कितनी ईमानदारी से उतार पाते हैं। क्योंकि कानून और आदेश कागज़ पर नहीं, बल्कि ज़मीन पर असरदार होते हैं।