बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) और अमेरिका के चैपमैन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने चौंकाने का खुलासा किया है। रिसर्चर्स का मानना है कि लगातार भूजल की कमी होने की वजह से गंगा का प्रवाह प्रभावित हो रहा है और किनारे की जमीन धंसने का खतरा बढ़ गया है। इससे आने वाले दिनों में वाराणसी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक घाट भी खतरे की जद में आ सकते हैं।
शोधकर्ताओं ने साफ किया है कि गंगा का प्रवाह प्रभावित होने की वजह से अलग तरह की भू-वैज्ञानिक स्थितियां पैदा हो रही हैं जिसने वाराणसी के ऐतिहासिक नदी तट पर जमीन धंसने के खतरे को बढ़ा दिया है। हालात में सुधार नहीं हुआ तो निकट भविष्य में इसके गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। शोधकर्ताओं ने सैटेलाइट और भूजल बोर्ड के डाटा का भी आकलन किया है।
▶ वाराणसी को महाश्मशान, ब्रह्म वर्धा, सुदर्शन और राम्या के नाम से भी जाना जाता है।
▶ मंदिरों के शहर वाराणसी में कुल 84 घाट हैं और यह दुनिया का सबसे बड़ा रिवर फ्रंट यानी नदी का किनारा है।
▶ बनारस को मंदिरों का शहर कहा जाता है और यहां 23,000 से भी ज्यादा मंदिर हैं।
▶ बनारस को मुक्ति धाम कहते हैं। माना जाता है कि जो यहां अंतिम सांस लेता है वह मोक्ष प्राप्त करता है।
▶ इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि वाराणसी ही वह शहर है जहां से आयुर्वेद और योग की उत्पत्ति हुई थी।
▶ पुरातत्व उत्खनन से पता चलता है कि काशी में 1200 ईसा पूर्व में भी शहर था, जिसके प्रमाण भी मिले।
▶ वाराणसी शहर का नदी तट छठी शताब्दी ईस्वी के बाद से एक तीर्थ स्थल के रूप में विकसित हुआ।
▶ बनारस को भगवान शिव व पार्वती का घर कहा जाता है। यह दुनिया का सबसे पुराना जीवित शहर माना जाता है।
▶ बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी एशिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी है, इसकी स्थापना पं. मदन मोहन मालवीय ने की थी।
▶ मंदिरों के अलावा यह शहर सिल्क के लिए जाना जाता है। बनारसी सिल्क की पारंपरिक साड़ी तैयार करने में 6 महीने लगता है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के भू-वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार फरवरी 2017 से लेकर अगस्त 2023 के बीच इन 6 वर्षों में काशी विश्वनाथ मंदिर के पास लोकप्रिय मणिकर्णिका घाट और दशाश्वमेध घाट 23 मिमी से अधिक पानी में डूब गए हैं।
वहीं सामने घाट और प्रह्लाद घाट पर 6 वर्षों में गंगा प्रवाह में परिवर्तन की वजह से कटाव 50 मिमी से अधिक हो गया है। जबकि गाय घाट और चौसट्टी घाट में यह 33 मिमी से अधिक है। वहीं अस्सी घाट, राजा हरिश्चंद्र घाट, राजा चेत सिंह घाट भी डूब क्षेत्र के कगार पर पहुंच रहे हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और चैपमैन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट डाटा को भूजल और वर्षा माप के साथ जोड़कर नदी के किनारे प्रति वर्ष 2 मिमी से 8 मिमी तक भूमि धंसने की दर की गणना की है।
चैपमैन यूनिवर्सिटी से के. राजू और प्रमुख सहयोगी रमेश सिंह ने 2003 से 2023 तक अमेरिकी सैटेलाइट और केंद्रीय-राज्य भूजल बोडों से डाटा का उपयोग करके भूजल परिवर्तनों का आकलन किया है। उन्होंने 2017 से 2023 तक जमीनी विस्थापन की जानकारी के लिए एक यूरोपीय सैटेलाइट का डाटा भी उपयोग किया है।
पिछले एक दशक में कई अध्ययनों से पता चला है कि हिमालय की तलहटी से लेकर भारत-गंगा के मैदानी एरिया तक जमीन के विशाल हिस्से में भूजल की कमी तेजी से हुई है। इससे सिंधु-गंगा के मैदान प्राचीन चट्टान से 4.9 किमी की औसत गहराई तक एक-दूसरे के ऊपर रेत, गाद और मिट्टी की परतें बन गई हैं।
चैपमैन यूनिवर्सिटी के राजू के अनुसार भूजल रेत की परतों के भीतर फंसा हुआ है और इसकी कमी से मिट्टी की परतों में गड़बड़ी आ गई है। इससे भूजल पूर्ति में रूकावट पैदा होती है। इसी वजह से जमीन धंसने का खतरा बढ़ जाता है।
रिपोर्ट बताती है कि भूजल की कमी दुनिया के कई स्थानों पर भूमि धंसने से जुड़ी हुई है। इसमें भारत-गंगा के मैदानी इलाकों से लेकर चंडीगढ़, दिल्ली और लखनऊ जैसे शहर भी शामिल हैं।
लेकिन भू-वैज्ञानिक मानते हैं कि जिस तरह से गंगा का पानी वाराणसी में बहता है, उससे नदी के किनारे और घाटों पर भूजल की कमी देखी जा रही है। इस पर चैपमैन यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट बताती है कि घुमावदार घाटों पर पानी के तेज वेग की वजह से नदी के किनारे के घाटों का क्षरण होता है।
राजू के अनुसार हम वाराणसी शहर भर में भूजल की कमी देख रहे हैं। साथ नदी का प्रभाव घाटों पर भूस्खलन को बढ़ाता है। हम इन प्रभावों को कुछ घाटों पर सीढ़ियों पर विकृति या उतार-चढ़ाव के रूप में देख सकते हैं। रिसर्च में बीएचयू से मिताली सिन्हा, सौरभ सिंह, अभिनव पटेल और प्रवीण कनौजिया ने सहयोग किया है ।
▶ BHU और चैपमैन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट डाटा को भूजल और वर्षा माप के साथ जोड़कर वाराणसी के नदी तट पर प्रतिवर्ष 2 मिमी से 8 मिमी तक भूमि धंसने की दर की पहचान की है।
▶ इसे भूजल कमी का प्रभाव बताया गया है। रिसर्च के अनुसार जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और ज्यादा खेती के कारण भूजल में लगातार हो रही कमी से मिट्टी की परत में बदलाव हुआ है। इससे जमीन धंसने लगी है।
▶ वाराणसी के भूवैज्ञानिकों मानना है कि घाटों के किनारे पानी की गति के साथ नदी के किनारे कटाव हो रहा है। इसका प्रभाव कुछ घाटों पर सीढ़ियों के डैमेज होने से समझा जा सकता है।
▶ वैज्ञानिकों का साफ कहना है कि इस तरह से चलता रहा तो काशी की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को नुकसान पहुंच सकता है। इसके उपाय तत्काल किए जाने की जरूरत है।
▶ शोधकर्ताओं का सुझाव है कि वाराणसी में भविष्य के जल प्रबंधन और भूजल उपयोग की रणनीति पर काम किया जाना चाहिए। ताकि शहर की इस विरासत को किया जाना चाहिए। ताकि शहर की इस विरासत को सुरक्षित बचाया जा सके।
काशी के सामाजिक कार्यकर्ता और जल संरक्षण से जुड़े राजेश सिंह 'दाढ़ी' बताते हैं कि दुनिया के सबसे पुराने बसे शहरों में से एक वाराणसी को इस जटिल चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इसके लिए इसके प्रतिष्ठित घाटों और सांस्कृतिक स्थलों के संरक्षण को सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है। पूरी दुनिया में काशी का जो महात्म्य है। उसे देखते हुए एजेंसीज और सरकारी अथॉरिटी को तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है।