उत्तर प्रदेश की सियासी जमीन से निकले और आसमां तक पहुंचने वाले कई चेहरे इस लोकसभा चुनाव में नहीं दिखेंगे। इनके नाम और काम पर वोट की फसल भले काटी जाएगी, लेकिन मतदाताओं को इनकी कमी खलेगी। ये ऐसे चेहरे थे, जिन्हें देखने और सुनने के बाद मतदाता अपना इरादा तक बदल देते थे। ये नेता मैदान में भले न हों, लेकिन इनके नाम से वोट का ग्राफ बदलता रहा है। ऐसे ही थे सपा संस्थापक मुलायम सिंह, भाजपा के दिग्गज नेता कल्याण सिंह, लालजी टंडन, रालोद के पूर्व अध्यक्ष अजित सिंह जैसे तमाम नेता।
ये सभी दिग्गज सियासी माहौल तथा चुनाव में हवा का रुख मोड़ने का माद्दा रखते थे। यही मेन वजह है कि चुनाव के मैदान में उतरने वाले सभी उम्मीदवार इनके नाम त्तथा काम एवं अरमान के माध्यम से सियासी फसल लहलहाने की अपनी कोशिश करते दिखाई देते हैं। हालांकि उनकी अनुपस्थिति में यह सब कितना कारगर होगा, यह तो वक्त बताएगा।
बहरहाल बैनर, पोस्टर हो या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, सभी जगह उनके फॉलोवर्स उनकी तस्वीरें स्वयं के साथ प्रदर्शित कर रहे हैं।
सियासी अखाड़े के बड़े खिलाड़ी मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश की सियासत में करीब पांच दशक तक अपनी छाप छोड़ी। मरणोपरांत पद्म विभूषण सम्मान दिया गया। उन्होंने अपने पहले चुनाव में आप मुझे एक वोट और एक नोट दें, अगर विधायक बना तो सूद समेत लौटाऊंगा का नारा दिया। मुख्यमंत्री से लेकर रक्षामंत्री तक बने सपा ही नहीं सत्तासीन भाजपा के नेता भी उनकी सियासी दांवपेच के मुरीद रहे।
सोशल इंजीनियरिंग के माहिर खिलाड़ी कल्याण सिंह ने मंडल बनाम कमंडल के दौर में तीन फीसदी लोध जाति को गोलबंद कर नए तरीके का माहौल तैयार किया। इसके बाद अन्य पिछड़ी जातियों को जोड़ने का अभियान चला। वह राम मंदिर आंदोलन के नायक के रूप में उभरे। भाजपा के साथ पिछड़ी जातियों को गोलबंद कर सियासत की ठोस बुनियाद तैयार की।
अजित सिंह तथा बीपी सिंह एवं अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक में यह केंद्रीय मंत्री रहे हैं। साल 1989 में हुए चुनाव के बाद वीपी सिंह के द्वारा अजित सिंह को सीएम बनाने का एलान किया गया तो मुलायम सिंह ने भी अपनी दावेदारी कर दी। विधायक दल की बैठक में महज पांच वोट से अजित सिंह हार गए और मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने।
अधिवक्ता से विधानसभा अध्यक्ष और फिर राज्यपाल की भूमिका निभाते हुए तमाम कड़े फैसलों के लिए पहचाने जाने वाले केशरीनाथ त्रिपाठी भी इस चुनाव में नहीं दिखेंगे। करीब 88 साल की उम्र में आठ जनवरी 2023 को उनका निधन हो गया।
90 के दशक में राजनीति में सक्रिय होने वाले अमर सिंह सपा के महासचिव भी बने तथा फिर साल 1996 में राज्यसभा सदस्य के रूप में संसद पहुंचे। उनका यूपी की राजनीति में अच्छा खासा दखल रहा है। 6 जनवरी 2010 को अमर सिंह ने सामाजवादी पार्टी से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद साल 2011 में कुछ समय न्यायिक हिरासत में भी रहे तथा उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया।
सुखदेव राजभर कांशीराम के साथ बसपा की नींव रखने वालों में शामिल रहे। मुलायम सरकार में सहकारिता राज्य मंत्री की जिम्मेदारी निभाई। वहीं मायावती सरकार में संसदीय कार्य मंत्री की जिम्मेदारी संभाली। विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका निभाई।
लालजी टंडन ने वर्ष 1960 में पार्षद से सियासी सफर की शुरुआत की और राज्यपाल तक पहुंचे। विधान परिषद सदस्य, विधायक, मंत्री, सांसद, राज्यपाल तक उन्होंने काफी लंबी सियासी पारी खेली। लखनऊ की रग-रग से वाकिफ थे।
लोकतंत्र के महापर्व को लेकर देश में बिगुल बज चुका है। चुनावी तैयारियां जोरों पर हैं। प्रदेश की 80 सीटों पर 19 अप्रैल से एक जून तक सात चरणों में मतदान होने हैं। महोत्सव के बीच अप्रैल में बैंड-बाजा, बरात की भी धूम रहेगी। 19 व 26 अप्रैल को बंपर शादियां होने की वजह से पश्चिमी यूपी में चुनाव के दो चरणों में मतदान बढ़ाने की चुनौती रहेगी।
आचार्य शिव मोहन मिश्रा बताते हैं कि अप्रैल में 18, 19, 20, 21, 22, 23, 24, 25, 26 और 28 को वैवाहिक कार्यक्रमों की धूम रहेगी। बात चुनाव की करें तो पहले चरण में पश्चिमी यूपी की आठ सीटों पर 19 अप्रैल को मतदान होगा। वहीं दूसरे चरण में 23 अप्रैल को भी 8 सीटों पर मतदान होने हैं।
मांगलिक कार्यों में व्यवस्था मुहैया कराने वाले कारोबारियों का भी कहना है कि 19 व 23 के शुभ मुहूर्त में प्रदेश बड़ी संख्या में विवाह के साथ अन्य मांगलिक कार्यक्रम तय हैं। ऐसे में खासकर पश्चिमी यूपी की 16 सीटों पर मतदान का प्रतिशत बढ़ाना प्रशासन और प्रत्या शियों के साथ उनके समर्थकों के लिए चुनौती से कम नहीं होगा। हालांकि देखा जाए तो मई में ऐसा कोई शुभ मुहूर्त न होने की वजह से ऐसी कोई चुनौती नहीं होगी